आवारा कुत्तों का आतंक, सुप्रीम कोर्ट का आदेश और संवेदनहीन व्यवस्था.
आवारा कुत्तों का आतंक, सुप्रीम कोर्ट का आदेश और संवेदनहीन व्यवस्था
दिल्ली और एनसीआर क्या पूरे देश में आवारा कुत्तों का खतरा अब सिर्फ “समस्या” नहीं बल्कि खुला आतंक बन चुका है। डॉग बाइट और रेबीज़ के मामले दिन-ब-दिन बढ़ रहे हैं। छोटे बच्चे, स्कूली छात्र, बुजुर्ग, कामकाजी महिलाएं — कोई भी इस खतरे से बचा नहीं है।आंकड़ों के मुताबिक साल 2024 में देश 37 लाख डॉग बाइट के मामले दर्ज हुए वहीं रेबीज से 54 मौतें हुईं ये आंकड़े समस्या की गंभीरता और विकरालता बताते हैं यह स्थिति इतनी भयावह है कि लोग अब घर से निकलते वक्त सड़क पर कुत्तों के झुंड देखकर रास्ता बदल लेते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने इस गंभीर संकट को देखते हुए आदेश दिया है कि दिल्ली-एनसीआर के सभी आवारा कुत्तों को शेल्टर में रखा जाए। आदेश में आठ हफ्ते का समय दिया गया है ताकि प्रशासन व्यवस्था कर सके। लेकिन इस फैसले का विरोध उन्हीं तथाकथित “पशु अधिकार” संगठनों ने किया है, जो अपने आपको करुणा का पैगंबर बताते हैं।

संवेदनहीनता की पराकाष्ठा
सवाल ये ही कि क्या इन संगठनों को सड़क पर खून से लथपथ बच्चों के शरीर, उनके चीखते हुए मां-बाप और डर से सहमे बुजुर्ग दिखाई नहीं दिखते ? क्या कभी इनके बच्चे कुत्तों का शिकार हुए तो भी इनकी करुणा ऐसी ही बानी कहेगी या जब अपने पर आएगी तो पैमाने बदल जाएंगे क्या इनकी संवेदना केवल जानवरों के लिए है, इंसानों के लिए नहीं? जब कोई मासूम बच्चा अस्पताल में जिंदगी और मौत के बीच झूल रहा होता है, तब ये लोग सोशल मीडिया पर हैशटैग चलाने में व्यस्त होते हैं — “SaveTheDogs”, “StopKillingDogs”।
आज हालात ये हैं कि अगर कोई इंसान आत्मरक्षा में कुत्ते को भगाने या डराने की कोशिश करे, तो उसके खिलाफ रिपोर्ट दर्ज हो जाती है। पुलिस भी इतनी “फुर्सत” में है कि बिना जांच के तुरंत केस दर्ज कर देती है, मानो इंसान के ऊपर कुत्ते का अधिकार ज्यादा है।
क्या यह सिर्फ करुणा है या कारोबार?
यह सवाल उठना लाजमी है कि आखिर क्यों कुछ कथित पशु प्रेमी संगठनों (सभी नहीं) को इंसान की पीड़ा से ज्यादा कुत्तों के अधिकार की चिंता है। क्या यह सिर्फ भावनात्मक लगाव है या इसके पीछे कोई कारोबारी हित भी जुड़े हैं? रेबीज के इंजेक्शन और कुत्तों से संबंधित चिकित्सा सेवाओं का बाजार अरबों रुपये का है। क्या इन संगठनों और दवा कंपनियों के बीच कोई सांठ-गांठ है, जिसके चलते वे कुत्तों की संख्या कम होने नहीं देना चाहते?
समस्या पूरे देश की है
यह संकट सिर्फ दिल्ली-एनसीआर का नहीं है। देश के हर शहर, कस्बे, यहां तक कि गांवों में भी लोग डरे हुए हैं। स्कूल जाते बच्चों पर हमले, बुजुर्गों को गिराकर काटने की घटनाएं और महिलाओं को डराने जैसे मामले रोज़ाना सामने आ रहे हैं। आए दिन अखबार दिल दहला देने वाली कुत्तों के हमले की फोटो से भरे मिलते है फिर भी प्रशासन और सरकार “संतुलित समाधान” के नाम पर स्थिति को टालती रही है।ये भी कहीं ना कहीं पशु प्रेमी संगठनों की आड़ लेकर कार्यवाही से बचते है इनकों पशु प्रेमी संगठनों का बहाना जो मिला हुआ है
अब और सहन नहीं
इंसान की जान किसी भी कुत्ते से ज्यादा कीमती है। अगर व्यवस्था इस सरल और स्पष्ट सत्य को नहीं मानती, तो यह मानवता के साथ सबसे बड़ा विश्वासघात है। अब वक्त है कि सरकार और न्यायालय मिलकर न केवल आदेश जारी करें, बल्कि उन्हें कड़ाई से लागू भी करें। शेल्टर का निर्माण हो, नसबंदी की प्रक्रिया तेज की जाए और जो भी कानून के रास्ते में बाधा बने, उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाए। स्पष्ट कर दें की ये विचार कुत्तों की खिलाफत नहीं करते ना ही उनके प्रति किसी हिंसा का समर्थन करते है आशय सिर्फ यही है कि कुत्तों के डर और आतंक का कुछ ऐसा समाधान हो कि कुत्तों के अधिकार वंचित हुए बिना एक आम आदमी अपनी कॉलोनी अपने शहर में बेख़ौफ़ घूम तो सके यहाँ स्पष्ट करना इसलिए भी जरूरी था की क्या पता किसी पशु प्रेमी की भावना आहत हो जाए और वो इस विचार को कुत्तों के खिलाफ मान कर रिपोर्ट ना दर्ज करा दें और उधार बैठी पुलिस बिना भावना समझे रिपोर्ट दर्ज भी कर ले
बहरहाल अगर अब भी इंसान की सुरक्षा को प्राथमिकता नहीं दी गई, तो आने वाले वर्षों में सड़कों पर कुत्तों का राज होगा और इंसान अपने ही शहर में कैदी बनकर रह जाएगा। यह सिर्फ जानवरों का मुद्दा नहीं, यह मानव सभ्यता की परीक्षा है — और अब वक्त है कि हम तय करें कि इस परीक्षा में हम पास होंगे या फेल।
अभिलाष शुक्ल संपादक HBTV न्यूज़
Article By :
Abhilash Shukla
abhilash shukla editor