अब भारत को मृदु संविधान के केंचुल से बाहर निकल नई राष्ट्रीय नीति व रणनीति अपनाने की जरूरत .


भारतीय संविधान के चरित्र व स्वरुप पर गौर करें तो वह एक मृदु संविधान की सभी विशेषताओं से लैस है। मृदु लक्षणों की वजह से ही उसका प्रतिनिधित्यात्मक चरित्र लोकतंत्र का हिमायती है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व निष्पक्ष चुनाव उसकी शीर्ष प्राथमिकता में है। मृदु गुणों की वजह से ही उसमें अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, कानून-व्यवस्था, शक्तियों के वितरण के अलावा अभिव्यक्ति, भाषा, धर्म, सभा और संपत्ति की स्वतंत्रता समाहित है। मौजूदा संविधान भारत राज्य का लिखित और विशाल संविधान है। सच कहें तो विदेशी संविधानों के प्रभाव ने उसे आवश्येकता से अधिक मृदु बना दिया है। भारतीय संविधान में ब्रिटिश संविधान की अनके बातें समाहित हैं, जैसे-संसदीय शासन व्यवस्था, भारत के राष्ट्रपति का संवैधानिक मुखिया होना, केंद्रीय मंत्रिमंडल का लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होना और कानून का शासन होना इत्यादि।
गौरतलब है कि इंग्लैण्ड में 1649 की हिंसात्मक क्रांति और 1688 की संविधानिक क्रांति से उदारवादी राज्य की स्थापना की नींव पड़ी। हाब्स जो निरंकुश शासन के समर्थन के लिए बदनाम है, उसने भी उदारवादी राज्य नीति के मूलभूत सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। ग्रीन, ब्रैडले और बोसांके ने उदारवादी विचारों को समष्टिवादी रुप देने की कोशिश की। बीसवीं सदी में राज्यों का उदारवादी चरित्र स्थायी भाव बन गया। भारतीय संविधान भी उदारवाद का खोल पहना लेकिन उसका चरित्र और स्वरुप पूरी तरह मृदु है। ब्रिटेन की तरह संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से मौलिक अधिकार, सर्वोच्च न्यायालय कनाडा के संविधान से भारत का राज्यों का संघ होना, आयरलैंड के संविधान से राज्य-नीति के निदेशक सिद्धांत, आस्टेªलिया के संविधान से समवर्ती सूची, जर्मनी के संविधान से राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों को स्रोत तथा दक्षिण अफ्रीका के संविधान से संवैधानिक संशोधन की प्रक्रिया जैसी महत्वपूर्ण बातें ग्रहण की गयी है। गौर करें तो भारतीय संविधान की यह सभी विशेषताएं भारतीय संविधान को उदारवादी कम मृदु राज्य ज्यादा बनाती हैं। भारतीय संविधान ने एक मृदु राज्य की तरह भारत में सभी नागरिकों को ढ़ेरों अधिकार दे रखा है जिससे उन्हें अपने व्यक्तित्व को संवारने की आजादी मिली हुई है।
भारतीय संविधान में जाति, धर्म, रंग, लिंग, कुल, गरीब व अमीर आदि के आधार सभी समान है। जनमत पर आधारित भारतीय संविधान ने संसदीय शासन प्रणाली में सभी वर्गों को समान प्रतिनिधित्व प्रदान किया है। सत्ता प्राप्ति के लिए खुलकर प्रतियोगिता होती है और लोगों को चुनाव में वोट के द्वारा अयोग्य शासकों को हटाने का मौका मिलता है। भारतीय संविधान ने राज्य के लोगों की स्वतंत्रता और उनके अधिकारों में अनुचित हस्तक्षेप करने का अधिकार केंद्र या राज्य सरकारों को नहीं दिया है। संविधान के तहत राजनीतिक दल सभाओं, भाषणों, समाचारपत्रों, पत्रिकाओं तथा अन्य संचार माध्यमों से जनता को अपनी नीतियों और सिद्धांतों से अवगत कराते हैं। विरोधी दल संसद में मंत्रियों से प्रश्न पूछकर, काम रोको प्रस्ताव रखकर तथा वाद-विवाद द्वारा सरकार के भूलों को प्रकाश में लाते हैं। सरकार की गतिविधियों पर कड़ी नजर रखते हुए उसकी नीतियों और कार्यों की आलोचना करते हैं। भारतीय संविधान के मुताबिक संघीय शासन की स्थापना के बावजूद भी प्रत्येक नागरिक को इकहरी या एकल नागरिकता प्राप्त है और इससे राष्ट्र की भावनात्मक एकता की पुष्टि होती है। भारत का प्रत्येक नागरिक चाहे वह देश के किसी भी भाग में रहे भारत का ही नागरिक है। यहां संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह राज्यों की कोई पृथक नागरिकता नहीं है। धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी इच्छानुसार शिक्षण संस्थाएं स्थापित करने तथा धन का प्रबंध करने का अधिकार है।
संविधान ने सुनिश्चित किया है कि शिक्षण-संस्थाओं को सहायता देते समय राज्य किसी शिक्षण संस्था के साथ इस आधार पर भेदभाव नहीं करता है कि वह संस्था धर्म या भाषा पर आधारित किसी अल्पसंख्यक वर्ग के प्रबंध में है। इसी तरह भारतीय नागरिकों को सूचना प्राप्त करने का अधिकार हासिल है। इस व्यवस्था ने भारतीय नागरिकों को शासन-प्रशासन से सीधे सवाल-जवाब करने की नई लोकतांत्रिक धारणा को जन्म दी है। इस व्यवस्था से सरकारी कामकाज में सुशासन, पारदर्शिता और उत्तरदायित्व बढ़ा है जिससे आर्थिक विकास को तीव्र करने, लोकतंत्र की गुणवत्ता बढ़ाने और भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने में मदद मिल रही है। सूचना के अधिकार से सत्ता की निरंकुशता पर भी अंकुश लगा है। भारतीय संविधान ने भारत के स्वरुप को एक मृदु राज्य में तब्दील कर दिया है। उसी का नतीजा है कि भारत के प्रत्येक राज्यों में राज्य मानवाधिकार आयोग का गठन हुआ है। इन आयोगों को विधिवत सुनवाई करने तथा दंड देने का अधिकार प्राप्त है। एक मृदृ राज्य के रुप में तब्दील हो जाने के कारण ही सत्ता का विकेंद्रीकरण और स्थानीय स्तर पर स्वशासन की व्यवस्था सुनिश्चित हुआ है। निश्चित रुप से मृदु राज्य के रुप में तब्दील होने से भारत का तीव्र गति से विकास हो रहा है और उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता भी बनी हुई है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि मृदु राज्य की वजह से भारत में रामराज्य आ गया है। सच तो यह है कि मृदु राज्य होने के नाते भारत कई तरह की चुनौतियों का सामना कर रहा है जिससे राष्ट्र की एकता, अखण्डता और सुरक्षा प्रभावित हो रही है। साथ ही अशांति, असुरक्षा और संघर्ष को बढ़ावा मिल रहा है। अपनी जनता को सुरक्षा एवं निर्भयता सुनिश्चित करवाना, कानून को पुष्ट करना एवं जो लोग उसे संचालित कर रहे हैं उनसे शक्ति की वैधता सुनिश्चित करवाना किसी भी सरकार का महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व होता है। लेकिन आज अगर देश इन आधारभूत सुविधाओं को उपलब्ध करवाने के प्रयास में विफल है तो निश्चित रुप से इसके अन्य कारणों में एक महत्वपूर्ण कारण भारतीय संविधान का मृदृ होना भी है।
गौर करें तो मृदु संविधान की वजह से ही कानून का अनुपालन शिथिल हुआ है और उसका परिणाम यह हुआ है कि देश में आतंकवाद, नक्सलवाद, अलगाववाद, छद्म युद्ध, विद्रोह, विध्वंस, जासूसी गतिविधियों, साइबर क्राइम, मुद्रा-जालसाजी, कालाधन और हवाला जैसी चुनौतियों को बढ़ावा मिला है। मृदु संविधान होने के नाते ही भारत लंबे समय से अब तक बाहर से प्रायोजित आतंरिक सुरक्षा के चुनौतियों का सामना कर रहा है और धन, संपत्ति व जान-माल की क्षति के रुप में इसका भारी मूल्य चुका रहा है। मृदु संविधान के नाते जेहादी आतंकवाद और वामपंथी आतंकवाद का देश में विस्तार हुआ है। अलगाववादी शक्तियां ताकतवर हुई हैं। पोटा जैसे सख्त कानून जो आतंकवाद को कुचलने के लिए जरुरी था, उसे सांप्रदायिक राजनीतिक रंग देकर समाप्त करने की कोशिश हुई। मृदु संविधान के नाते भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला है और भ्रष्टाचारी कानून के शिकंजे से बचने में कामयाब रहे हैं। राजनीतिक व सामाजिक मोर्चे पर भी कई तरह की समस्याएं खड़ी हुई हैं। भारतीय संविधान ने भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया है। लेकिन सच यह है कि मृदु संविधान की वजह से धर्मनिरपेक्षता अल्पसंख्यकवाद के पोषण तक सिमट कर रह गयी है। आज देश के तमाम राजनीतिक दल सत्ता हासिल करने के लिए छद्म धर्मनिरपेक्षता की आड़ लेकर सामाजिक एकता को भंग करने की फिराक में हैं। यही नहीं वे खुलकर राष्ट्र के विरुद्ध जहर उगल रहे हैं और मृदु संविधान के नाते उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं हो रही है। मृदु संविधान की वजह से ही समाज विरोधियों को कड़ी सजा नहीं मिल पा रही है और देश में बच्चों, गरीबों और महिलाओं पर अत्याचार बढ़ रहा है।
मृदु संविधान की वजह से जनसंख्यानीति भी नहीं बन पा रही है। नतीजा यह है कि देश में बेरोजगारी, गरीबी, भूखमरी और अपराध की समस्याएं लगातार गहरा रही हैं। मृदु संविधान के नाते ही अभी तक देश में समान नागरिक संहिता लागू नहीं हो सकी है और उससे सामाजिक और जननांकिय संतुलन गड़बड़ा गया है। आज भारत को मृदु संविधान के केंचुल से बाहर निकल नई राष्ट्रीय नीति व रणनीति अपनाने की जरुरत है ताकि देश की सुरक्षा और संप्रभुता को नुकसान न पहुंचे। यह भी समझना होगा कि देश व संविधान समाज के सभी संकीर्ण स्वार्थों से उपर है और उसे सीमा से अधिक मृदु बनाना उसके अस्तित्व को चुनौती देना है।
Article By :
अरविंद जयतिलक, वरिष्ठ पत्रकार
आज भारत को मृदु संविधान के केंचुल से बाहर निकल नई राष्ट्रीय नीति व रणनीति अपनाने की जरुरत है ताकि देश की सुरक्षा और संप्रभुता को नुकसान न पहुंचे। यह भी समझना होगा कि देश व संविधान समाज के सभी संकीर्ण स्वार्थों से ऊपर है।
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